May 9, 2024

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कोरोना खत्म, चुनावी सरगर्मियाँ शुरू

बदनावर। कोरोना महामारी ने जहां एक ओर जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था,वहीं चुनावी चर्चा को भी ठण्डे बस्ते में डाल‌ दिया था। अब कोरोना संक्रमण का प्रकोप दिन पर‌ दिन‌ कम होता जा रहा हैं,वहीं दुसरी ओर परिषद् चुनाव की सरगर्मियां बढ़ने लगी हैं। नेता लोगों का घर से बाहर निकलना भी बढ़ता जा रहा हैं,जैसे प्रतीत होता हैं कि मानो बारिश के समय में बिल वाले जीव-जन्तु अपने-अपने बिलों से बाहर निकलते हैं। अब तो राह चलते कोई हाथ जोड़कर राम-राम या इस्तेकबाल भी कर दें तो ऐसा लगता हैं कि भैय्या अपना नेता तैय्यार हो गया हैं।

नेता लोगों का अब जनता से मिलना-जुलना भी बहुत हो गया हैं,पर जनता अब बड़ी चालाक हो गयी हैं।‌ पहले चुनावी खेल रातों-रात में बाजी पलट देता हैं,अब जनता समझ गयी हैं कि कौन‌ कोरोनाकाल में उनके साथ खड़ा था। अब जनता उम्मीदवार का दारू-मुर्गा भी डकार लेती हैं,फिर अगली सुबह ठेंगा भी दिखा देती हैं। क्योंकि अब शहर की जनता समझती है कि राजनीति और नेता के मायने हीं बदल गये हैं,जिस नेता के पास चुनाव के पहले कुछ नहीं होता हैं,सत्ता में आने के बाद सबकुछ हो जाता हैं। कच्चे मकानों में रहने वाले प्रत्याशी अब बड़े-बड़े मकानों में रहने लगे हैं, दोपहिया वाहन से चौराहें पर बीड़ी फूंकने वाले अब कारों के मालिक हो गये हैं,फिर जनता कहती हैं “नेताजी विकास नी वियो ?” अब विकास होगा कैसे विकास तो सारा आपके नेताजी ने किया है,आप बस वहीं दारू-मुर्गे में हीं अटके हैं।

खैर चुनाव अब एक खेल‌‌ बन‌ गया,जिसमें वहीं जितता है जो एक पक्का और माहिर खिलाड़ी हों। नेताजी भी अब अपने साथ घुमने वाले पिट्ठू तैयार कर रहें हैं,ताकि चुनाव में बुलंदी से नारे लगा सके,फिर नेताजी को फलों से तौलने की भी व्यवस्था कर दें और सबसे खास‌ फूलों की माला लेकर रैली के आगे चलें और जनता को कहें कि पीछे नेताजी आ रहे हैं,हार से स्वागत कर देना उनका। इतने में तो नेताजी फूला ना समाये,सीधा अंतरिक्ष में उड़ने लगें और इधर कार्यकर्ता चाय-पानी के लिए जबरन नेताजी को चने के झाड़ पर चढ़ा दें।

खैर प्रत्येक नेता ऐसे नहीं होते हैं, कुछ-कुछ ईमानदार भी होते हैं,पर इनमें से अधिकांश बाद में खरबूजे को देखकर खरबूज़ा रंग बदल हीं लेता हैं और जो बच जाए हैं वो भी कंकड़ के साथ पिसाते चले जाते हैं।‌ एक बात समझ से परे हैं कि महिला वर्ग के लिए सीट आरक्षित होने के बाद पुरूष उम्मीदवार इतने हतोत्साहित क्यूं होते हैं,क्या महिला सशक्तिकरण प्रबल नहीं हैं ? क्या महिलाएं राजनीति नहीं करना चाहती ? खैर जो भी हो जनता यहीं चाहती हैं कि महिला अपने नाम से चुनाव जीते,जिससे किसी प्रत्याशी पति को सदन में बैठने का मौका ना मिलें।
जय हिन्द

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